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शनिवार, 15 अगस्त 2009

यह अजीब बाग़

पंछी हूँ मैं उस बाग़ का ,
जिंदगी है नाम जिसका।
ग़म और खुशी का मेल यहाँ रहता,
यहाँ जीवन-मरण का खेल खेला जाता।
हर कोई 'काम' को साधना मानता,
माया, मोह, ममता में फंसा  रहता।
कोई नहीं यहाँ साथी सच्चा,
जब चाहे हमें  गले लगा लेता,
जी चाहे तो हमें  टुकरा देता।
हर कोई अपना हक़ साबित करना चाहता,
इसकेलिए दूसरों का हक़ भी छीन लेता।
बाग़ है यह रंग-बिरंगा, निरंतर बदलता,
साथ ही हर प्राणी भी बदल जाता।
बदलाव तो हर कोई पसंद करता,
पर यह अजीब मर्म मेरी समझ में न आता।
मुझे तो हमेशा यही लगता,
उचित है सीधा-सादा बनके रहना।
हमेशा पंछी सीधा बनके रहना ,
यही मुझे  खूब सदा भाता,
आख़िर पंछी हूँ मैं भोला-भाला!

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