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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

सीख

मैं उन्मुक्त पंछी उडती चली
नीले अम्बर की ऊँचाई छूती चली
काली घटा छाई, ठंडी हवा बही
संग संग  मैं भी चलती रही।
देख आई मैं नज़ारे कई,
कुछ नफरत से भरी,
तो कुछ सुहाने प्यार भरी।
तो कुछ  असीम करुणामई।
देखने को मिली किस्से स्वार्थ की,
तो देखी  कहानी त्याग और सेवा की।
देखी  ज़िन्दगी सुख समृद्दी की,
तो कहीं गरीबी और लाचारी की।
दिल में सवाल अनेक उठी,
कभी सोचने लगी क्या यही है ज़िन्दगी!
फिर भी मैं आज़ाद उडती चली
रास्ते में प्यार मैं बांटती चली।
आखिर यही तो सीख है ज़िन्दगी की -
प्यार दो, आखिर हम सभी हैं भाई - भाई
                                                   -"अपराजिता"
                                                      12.9.12

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

धरती माँ का दुःख

 सुन री! वह चिड़िया चहक रही है,
गगन में घनघोर घटा छाई है |
लगता है मानों शोक मना रही है,
ये धरती माँ प्यारी, किसीकी|
इसीलिए यह समा है इतनी दुखी|
लगता है मानों, अपना दुःख छिपा रही है,
दुःख अपना प्रकट करना चाहती है,
पर गले में आकर अटक जाती है|
उसके गले भर रही हैं,
पर, आँसू निकलते ही नहीं है|
किससे कह सकती अपने दुख की कहानी?
लगता है जैसे शोक मन रही है,
अपने प्यारे साजन से बिछड रही है,
हाय, ये दुःख किसी से कह नहीं पा रहीं,
ये हाल क्यूँ, प्यारी धरती माँ मेरी?
क्या ऐसा कोई नहीं है, जो तुम्हे समझ ले,
और तुम्हें अपने दुःख से छुड़ा लें?
रो ले माँ, रो ले| ताकि हल्का हो जाए मन तेरे|
अपना ग़म तुम्हीं को सहना है माँ,
इसीलिए ज़ोर से रो ले, प्यारी माँ!

शनिवार, 15 अगस्त 2009

नैय्या पार करो!

हे मेरे प्यारे गिरिधारी!
बनाया तूने ये दुनिया न्यारी।
बसे हैं इसमे हर तरह के प्राणी,
पर आज तक देखा ऐसा न कोई,
जो है शुद्ध, गंगा मय्या सी।
इस बड़ी दुनिया में हूँ अकेली,
निस्सहाय। पर हूँ मैं तो तेरी।
आश्रय दो मुझे, हे अन्तर्यामी,
भूल जाओ मेरे हर एक त्रुटी।
तुम्ही जीने के सहारे हो, बनवारी!
दर्शन देने तुम जो आए नहीं,
हाय!रह गई मेरी अक्खियाँ प्यासी।
आशा है मेरे सिर्फ़ तुम्हीं,
बेडा पार करा दो, हे द्वाराकापुरावासी!
तुम नहीं आए दर्शन देने यदि,
कसम है, ये दुनिया छोड़ दूँगी।
नियति  को बदलना जानते हो तुम ही,
क्यों न बचा  दे डूबती कश्ती मेरी?
हे पिया, करती हूँ तुझसे विनती,
अब न सताओ, मैं हूँ दुखियारी।
मैं हूँ तेरे प्रेम की दीवानी,
आजा, नय्या पार करो इस दीवानी की!


मेरे सपनों की दुनिया

मैंने सपने में एक ऐसी दुनिया देखी,
जिसमे न ग़म है, नाम-मात्र के भी,
चारों और हैं बहारों और खुशियाँ ही,
'वैर' शब्द की नाम-निशान ही नहीं।
सब है एक दूसरे के भाई-भाई,
भेद नहीं है जाती-पाँती की।
राम, रहीम, मंजीत, एन्टोनी,
सब हैं मित्र, औ दूसरों का हितकारी।
चारों ओर हैं सिर्फ़ शान्ति ही,
आतंकवादी का नाम भी है नहीं।
एक दूसरे के जीवन की बैसाकी नहीं,
बल्कि हो जाते हैं दिया दिवाली की।
स्त्रियाँ तो है सति-सावित्री,
अपनी हया का सदा ख्याल रखती,
सम्मान के साथ जिंदगी बिताती,
सबके मर्यादा के पात्र बनी रहती।
अगर दुनिया यह मेरी कल्पना की,
मित्य  न होकर, सच्ची होती,
यह दुनिया स्वर्ग बन जाती,
सुख की कविता ही हमेशा निकलती!



यह अजीब बाग़

पंछी हूँ मैं उस बाग़ का ,
जिंदगी है नाम जिसका।
ग़म और खुशी का मेल यहाँ रहता,
यहाँ जीवन-मरण का खेल खेला जाता।
हर कोई 'काम' को साधना मानता,
माया, मोह, ममता में फंसा  रहता।
कोई नहीं यहाँ साथी सच्चा,
जब चाहे हमें  गले लगा लेता,
जी चाहे तो हमें  टुकरा देता।
हर कोई अपना हक़ साबित करना चाहता,
इसकेलिए दूसरों का हक़ भी छीन लेता।
बाग़ है यह रंग-बिरंगा, निरंतर बदलता,
साथ ही हर प्राणी भी बदल जाता।
बदलाव तो हर कोई पसंद करता,
पर यह अजीब मर्म मेरी समझ में न आता।
मुझे तो हमेशा यही लगता,
उचित है सीधा-सादा बनके रहना।
हमेशा पंछी सीधा बनके रहना ,
यही मुझे  खूब सदा भाता,
आख़िर पंछी हूँ मैं भोला-भाला!

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

जागो एक बार

ओ दुनियावालों! पागल हो तुम सब तो,
रात-दिन रुपयों के पीछे दौड़ते हो।
काम-क्रोध-मोह-मद से तुम भरे हो,
विषय कामनाओं में सदा डूबे रहते हो।
ईर्ष्या  से तुम जल उठे  हो,
दोसरों की तरक्की पर जलते रहते हो।
अपनों को तुम ठुकरा  देते हो,
अपने हित  के वास्ते वैरों से जुड़ जाते ही।
उस भगवन से मुख मोड़ लेते हो,
उसके संतानों को तुम सताते हो।
खून पीसने की मशीन बन जाते हो,
अपने ही भाइयों की ह्त्या करते हो।
याद रखना, की अंजाम इसका तो,
होगा इतना क्रूर, की तुम्हें भी तो,
झुलसना होगा इस अग्निकुंड में एक दिन तो।
हे मानव! अपने कर्मों से तो ढरो ,
अपनी अंतरात्मा की पुकार ज़रा सुनो।
इस बुरी राह से अब तो हट जाओ,
हे दुनियावालों! कम से कम अब तो जागो!

मैं पंछी मद-मस्त सी

आजाद पंछी हूँ मैं इस बड़े बाग़ की,
विचरण करती हूँ इस दुनिया में अकेली।
कोई भी न है अपनी सखी-सहेली,
फिर भी हूँ मैं मद-मस्ती  से भरी।
परवाह नहीं मुझे ज़रा भी किसीकी,
करती वहीं हूँ जो मैं ठीक  समझती।
अजीब रीत है दुनिया-वालों की,
करते हैं बात सिर्फ़ दूसरों की ही ।
अपने बारे में वे सोचते ही नहीं,
हमेशा बुराई सोचते हैं अपने पड़ोसियों की।
ऐसे में, मैं क्यूं परवाह करूँ उनकी,
क्यूं कुर्बान कर दूं  अपनी  नेकी?
अपनापन  का जब मतलब ही नहीं,
तो मैं क्यूं 'बंदी' बनके रहूँ इस बंधन की?
मुक्ति के राह पर मैं चलूंगी,
परवाह करूंगी सिर्फ अपने गिरिधारी की।
मैं हमेशा बनकर रहूंगी आजाद  पक्षी,
रोक न सकेगा मेरी उड़ान को कोई भी।
मैं बनके रहूंगी पंछी मद-मस्त  सी,
एक दिन ज़रूर इस दुनिया को जीत लूंगी ।